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याभि॒: सिन्धु॒मव॑थ॒ याभि॒स्तूर्व॑थ॒ याभि॑र्दश॒स्यथा॒ क्रिवि॑म् । मयो॑ नो भूतो॒तिभि॑र्मयोभुवः शि॒वाभि॑रसचद्विषः ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

yābhiḥ sindhum avatha yābhis tūrvatha yābhir daśasyathā krivim | mayo no bhūtotibhir mayobhuvaḥ śivābhir asacadviṣaḥ ||

पद पाठ

याभिः॑ । सिन्धु॑म् । अव॑थ । याभिः॑ । तूर्व॑थ । याभिः॑ । द॒श॒स्यथ॑ । क्रिवि॑म् । मयः॑ । नः॒ । भू॒त॒ । ऊ॒तिऽभिः॑ । म॒यः॒ऽभु॒वः॒ । शि॒वाभिः॑ । अ॒स॒च॒ऽद्वि॒षः॒ ॥ ८.२०.२४

ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:20» मन्त्र:24 | अष्टक:6» अध्याय:1» वर्ग:40» मन्त्र:4 | मण्डल:8» अनुवाक:3» मन्त्र:24


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शिव शंकर शर्मा

पुनः वही विषय आ रहा है।

पदार्थान्वयभाषाः - हे सैनिकजनों ! (याभिः) जिन रक्षाओं और सहायताओं से आप (सिन्धुम्) समुद्र की (अवथ) रक्षा करते हैं, (याभिः) जिन उपायों से (तूर्वथ) शत्रुओं का संहार करते हैं, (याभिः) जिस सहायता से (क्रिविम्) कूप बना बनवाकर प्रजाओं को (दशस्यथ) देते हैं, (मयोभुवः) हे सुखदाता (असचद्विषः) हे शत्रुरहित मरुतो ! आप (शिवाभिः) उन कल्याणकारिणी (ऊतिभिः) रक्षाओं से (नः) हमजनों को (मयः+भूत) सुख पहुँचावें ॥२४॥
भावार्थभाषाः - समुद्र में व्यापारिक जहाजों की रक्षा की बड़ी आवश्यकता होती है अतः वेद भगवान् कहते हैं कि समुद्र की भी रक्षा करना सैनिक धर्म है। तथा कूप में सदा जल विद्यमान रहे और उसमें शत्रुगण विषादि घातक पदार्थ न मिला सकें, अतः कूपों की रक्षा का विधान है ॥२४॥
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - हे वीरो ! आप (याभिः) जिन रक्षाओं से (सिन्धुम्, अवथ) समुद्र को सुरक्षित करके स्वाधीन करते हैं (याभिः, तूर्वथ) और जिनसे शत्रुओं का नाश करते हैं (याभिः) जिनसे निर्जल देशों में (क्रिविम्) कूप खनकर (दशस्यथा) अपनी प्रजा को देते हैं (मयोभुवः) हे सुख के उत्पादक (असचद्विषः) शत्रुओं से न मिलनेवाले ! (शिवाभिः, ऊतिभिः) उन्हीं कल्याणमय रक्षाओं द्वारा (नः) हमको (मयः) सुख (भूत) प्राप्त कराएँ ॥२४॥
भावार्थभाषाः - हे प्रजाओं के रक्षक शूरवीरो ! आप अपने उद्योग से समुद्रपर्य्यन्त सम्पूर्ण देश को स्वाधीन करते सुरक्षित करते और कुल्या=नहरें निकालकर तथा कूप खनकर देश को हरा-भरा करते हैं, जिससे प्रजाजन सुखपूर्वक जीवन व्यतीत करें। ऐसे राष्ट्रपति चिरस्थायी होते और सम्पूर्ण प्रजावर्ग उनसे सदैव प्रसन्न रहते हैं ॥२४॥
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शिव शंकर शर्मा

पुनस्तदनुवर्त्तते।

पदार्थान्वयभाषाः - हे मरुतः ! याभिः=ऊतिभिः। सिन्धुम्=समुद्रम्। अवथ=रक्षथ। याभिरूतिभिः। तूर्वथ=शत्रून् हिंस्थ। तुर्वी हिंसार्थः। याभिः। क्रिविम्=कूपम्। दशस्यथ=प्रयच्छथ। हे मयोभुवः=मयसः सुखस्य भावयितारः सुखप्रापकाः। हे असचद्विषः=अविद्यमानशत्रवः। यूयम्। शिवाभिरूतिभिः। नः=अस्माकम्। मयः=सुखम्। भूत=भावयत=उत्पादयत। यद्वा। भू प्राप्तौ। प्रापयत ॥२४॥
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - हे वीराः ! (याभिः) याभी रक्षाभिः (सिन्धुम्, अवथ) समुद्रं रक्षया स्वायत्तीकुरुथ (याभिः, तूर्वथ) याभिश्च शत्रून् हिंस्थ (याभिः) याभिश्च (क्रिविम्) निर्जले कूपम् (दशस्यथा) निर्माय प्रयच्छथ (मयोभुवः) हे सुखस्य भावयितारः (असचद्विषः) असङ्गच्छमानवैरिणः ! (शिवाभिः, ऊतिभिः) ताभी रक्षाभिः कल्याणीभिः (नः) अस्मान् (मयः) सुखम् (भूत) प्रापयत ॥२४॥